मन के खेल


            *मन के खेल..*


*मन की आदत है कि हमे जो मिला है उसे भूलने लगता है । मन सदा उसके लिये रोता है जो मिला न हो । मन की आदत ही भविष्य मे होने की है । वर्तमान मे मन नही टिकता ।*





 

 




*मन की इस आदत को समझ कर छोड़ देना ही ध्यान है । ध्यान का सीधा अर्थ यही है कि जो है उसके प्रति जागना । जो नही है उसकी फिक्र छोड़नी है ।*


*तुम्हारे पास लाख रुपये है तो मन उसको नही देखता , जो दस लाख नही है , उनका हिसाब लगाता है । जब तुम्हारे पास दस हजार थे , सोचा था लाख होंगे तो आनंदित होंगे । दस लाख भी हो जाये , तुम आनंदित होने वाले नही हो क्यो कि तुम मन का सूत्र नही पकड़ पा रहे । वह कहेगा दस करोड़ होने चाहिए ।*


*जहाँ तुम पहुँच जाते हो मन वहां से हट जाता है । मन सदा तुम से आगे दौड़ता है । तुम मन्दिर मे हो वह दुकान मे है ,तुम दुकान मे हो वह मन्दिर मे है । तुम बाजार मे हो वह हिमालय की सोचता है ।*


*मन का सारा खेल ही उसकी दौड है। मन हमे दौड़ाता है और हम दौड़ते है उसके पीछे पीछे। वो इसलिए कि हम बेहोशी में जीते हैं। हमारी बेहोशी जितनी गहरी होगी हमारी भागदौड़ उतनी ज्यादा होगी।जागरूकता ही इसका हल है। एक जागा हुआ व्यक्ति मन के साथ नहीं दौड़ता बल्कि उसकी दौड़ पर हंसता है। मन की नासमझी पर हंसता है।*


*मन का सारा गणित ही उल्टा है.. हम सोचते हैं मन को जिताना रोकेंगे उतना रूकेगा, जितना दबाएंगे उतना दबेगा। लेकिन ऐसा नहीं है मन को जितना रोकोगे वो उतना ही भागेगा। मन को स्वतंत्र छोड़ दो तटस्थ हो जाओ.. वह अब नहीं भागेगा क्योंकि अब उसके पास भागने का कोई कारण नही है। मन भी कारण ढूढता है, निषेधता ढूढता है!!*